मध्यप्रदेश के रीवा जिले के चाकघाट तहसील क्षेत्र में एक ऐसे नवजात का जन्म हुआ है, जिसने न केवल परिवार, बल्कि पूरे मेडिकल समुदाय को भी हिला कर रख दिया है। एक एलियन की तरह दिखने वाला यह नवजात दरअसल ‘कोलोडियॉन बेबी’ है — एक ऐसी दुर्लभ अनुवांशिक स्थिति, जिसके उदाहरण पूरी दुनिया में हजारों में एक बार ही देखने को मिलते हैं।
इस घटना ने न केवल एक माँ की ममता को कठोर परीक्षा में डाला है, बल्कि प्रदेश की चिकित्सा व्यवस्था, मातृ-शिशु देखभाल, और जेनेटिक काउंसलिंग की गंभीर सीमाओं को भी उजागर किया है।
प्रसव की रात: एक सामान्य प्रतीत होती डिलीवरी, असाधारण परिणाम
ढकरा सोनौरी गांव निवासी प्रियंका पटेल को मंगलवार की रात प्रसव पीड़ा हुई। परिवार के सदस्य उन्हें पास के चाकघाट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए। बुधवार सुबह करीब सात बजे नॉर्मल डिलीवरी हुई। माँ पूरी तरह स्वस्थ थी, लेकिन जैसे ही बच्चे ने जन्म लिया — चिकित्सकों के चेहरे पर घबराहट और उलझन की रेखाएं उभर आईं।
डॉक्टरों ने पाया कि नवजात की त्वचा एक मोटी झिल्ली से ढकी हुई थी। आँखें सूजी हुई, होठ पीछे खिंचे हुए, अंग अत्यधिक सिकुड़े हुए थे। उसकी हालत नाजुक थी। तुरंत उसे रीवा के गांधी मेमोरियल अस्पताल के नवजात गहन चिकित्सा कक्ष (NICU) में भर्ती कराया गया।
परिवार की आवाज: "हर जांच सही थी, फिर ऐसा क्यों हुआ?"
शांति देवी पटेल, जो खुद तीन बार दादी बन चुकी हैं, इस बार टूट चुकी हैं। उन्होंने कहा —
“हमने सरकारी अस्पताल भी दिखाया, प्राइवेट क्लिनिक भी गए। अल्ट्रासाउंड कराया। सब रिपोर्ट्स में सब कुछ ठीक बताया गया। किसी ने नहीं कहा कि बच्चा इस हालत में होगा। हम पूरी उम्मीद में थे — लेकिन भगवान ने यह क्यों किया... समझ नहीं आता।”
इस बयान में सिर्फ एक माँ की पीड़ा नहीं, सिस्टम पर सवाल भी हैं। क्या हमारी मातृत्व सेवाओं में गहराई की कमी है? क्या गांवों में जेनेटिक काउंसलिंग अब भी सपना है?
कोलोडियॉन बेबी: जब त्वचा बन जाती है जंजीर
विशेषज्ञों के अनुसार, यह नवजात एक ‘कोलो
डियॉन बेबी’ है — जिसका अर्थ है कि बच्चा जन्म लेते समय एक मोटी, चमकदार, झिल्लीनुमा त्वचा में लिपटा होता है। यह स्थिति Congenital Ichthyosis नामक बीमारी से जुड़ी हो सकती है। इस बीमारी में त्वचा की प्राकृतिक प्रक्रिया — मृत कोशिकाओं के झड़ने और नई त्वचा बनने — में विकृति आ जाती है।
डॉ. नवीन मिश्रा, जो गांधी मेमोरियल अस्पताल में पीडियाट्रिक नवजात विभाग के प्रमुख हैं, बताते हैं —
“यह जेनेटिक डिसऑर्डर तब होता है जब माँ और पिता दोनों ‘कैरियर’ होते हैं। यानी उन दोनों में बीमारी नहीं होती, लेकिन उनके जीन में गड़बड़ी होती है। अगर दोनों कैरियर हैं, तो 25% संभावना होती है कि बच्चा उस बीमारी से ग्रसित होकर जन्म ले।”
यह जानकारी हमारे समाज में प्रचलित यह मिथक भी तोड़ती है कि "अगर अल्ट्रासाउंड सामान्य है तो सब ठीक है"।
एक सवाल: क्या हमारी चिकित्सा व्यवस्था इसके लिए तैयार है?
इस घटना ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि हमारी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं अभी भी सतही हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहाँ आज भी ‘जेनेटिक स्कैनिंग’, ‘कैरियर टेस्टिंग’, और ‘एंटी-नेटल काउंसलिंग’ जैसे शब्द भी आमजन के लिए अनजान हैं।
बच्चे की स्थिति को देखते हुए जो सवाल सामने आ रहे हैं:
गर्भावस्था के दौरान इस विकार को पहचाना क्यों नहीं गया?
क्या माँ को पर्याप्त पोषण और दवा मिली?
क्या स्वास्थ्य अधिकारियों ने समय पर उन्नत जांच की सलाह दी?
कोलोडियॉन बच्चों का भविष्य: संघर्ष और संभावनाएं
इस प्रकार के नवजात, यदि शुरुआती सप्ताहों में बच जाते हैं, तो उनके लिए जीवन कठिन परंतु संभव हो सकता है। अत्यधिक देखभाल, ICU निगरानी, मॉइस्चराइजेशन थैरेपी, फंगल संक्रमण से बचाव, और विशेषज्ञ शिशु रोग विशेषज्ञों की सतत निगरानी आवश्यक होती है।
भारत में अब तक ऐसे 100 से भी कम मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें बच्चों ने एक वर्ष से अधिक आयु प्राप्त की है। लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य सरकार और स्वास्थ्य विभाग समर्पित हस्तक्षेप करें।
: यह सिर्फ एक चिकित्सा मामला नहीं, एक सामाजिक चेतावनी है
रीवा की यह घटना सिर्फ एक विचित्र जन्म नहीं है, यह एक चेतावनी है — पूरे तंत्र के लिए।
यह याद दिलाती है कि विज्ञान और संवेदना साथ चलें।
यह बताती है कि "स्वस्थ माँ" का अर्थ केवल BP और HB नहीं होता, बल्कि जेनेटिक दृष्टिकोण से भी जांच आवश्यक है।
और यह माँ हमें सिखाती है कि ममता, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, हमेशा अडिग रहती है।