मध्यप्रदेश में शराब की कीमतों को लेकर उपभोक्ताओं के आक्रोश को आखिरकार न्यायपालिका की गूंज मिल गई है। जबलपुर हाईकोर्ट ने शराब दुकानों पर एमआरपी से अधिक मूल्य वसूलने की शिकायतों पर स्वतः सजग होते हुए राज्य सरकार को नोटिस जारी कर दिया है। यह हस्तक्षेप ऐसे समय आया है जब लंबे समय से उपभोक्ता अधोसंरचना, शिकायत तंत्र और विभागीय लापरवाही के बीच पिस रहे थे।
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश श्री संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की खंडपीठ ने यह आदेश जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया, जिसमें राज्य के कई शराब ठेकेदारों पर 'सिंडीकेट बनाकर’ एमआरपी से अधिक मूल्य वसूलने का गंभीर आरोप लगाया गया है।
याचिकाकर्ता की गुहार: उपभोक्ता अधिकारों का खुला उल्लंघन
इस मामले में याचिका दायर की है अधिवक्ता दीपांशु साहू ने। उन्होंने अदालत को बताया कि राज्य में शराब ठेकेदारों ने एक संगठित तंत्र खड़ा कर लिया है, जो बिना किसी भय के खुलेआम अधिकारिक मूल्य से अधिक राशि में शराब बेच रहा है।
उनके अनुसार, यह न केवल उपभोक्ता के अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि राज्य के राजस्व को भी नुकसान पहुंचाने वाला कृत्य है। सबसे बड़ी चिंता यह है कि इसके खिलाफ की गई शिकायतों के बावजूद आबकारी विभाग पूरी तरह निष्क्रिय बना रहा।
कोर्ट ने उठाए तीखे सवाल, सरकार से मांगा ठोस जवाब
हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से स्पष्ट रूप से पूछा है कि:
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1 अप्रैल से 15 जून 2025 तक कितनी ऐसी शिकायतें दर्ज हुईं,
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कितनी दुकानों पर औचक निरीक्षण या छापेमारी हुई,
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कहां-कहां पर एमआरपी से अधिक मूल्य की पुष्टि हुई,
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और संबंधित मामलों में क्या कार्रवाई की गई।
यही नहीं, कोर्ट ने यह भी जानना चाहा कि याचिकाकर्ता द्वारा की गई शिकायतों का अंतिम परिणाम क्या निकला।
मौन क्यों? क्या यह मिलीभगत है?
यह सवाल अब आमजनता से लेकर अदालत तक पहुंच गया है कि अगर शिकायतें दर्ज हो रही थीं, और विक्रेताओं की मनमानी सबको ज्ञात थी, तो प्रशासन ने मौन क्यों साध रखा था? क्या यह केवल विभागीय लापरवाही है या इसके पीछे लाभ का कोई अदृश्य समीकरण चल रहा है?
विशेषज्ञ मानते हैं कि जब राजस्व विभाग की निगरानी में चलने वाला व्यापार सार्वजनिक रूप से नियमों को धता बता रहा हो, तो यह सिर्फ प्रशासनिक कमजोरी नहीं, बल्कि संभावित मिलीभगत का मामला भी बन जाता है।
चुनावी वर्ष में सरकार की बढ़ी चिंता
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की आहट है। ऐसे में इस प्रकार के मुद्दे सरकार के लिए राजनीतिक असहजता पैदा कर सकते हैं। विपक्ष को अब एक और मौका मिल गया है कि वह सरकार की शराब नीति और आबकारी व्यवस्था पर हमला बोले।
विपक्ष पहले से सरकार पर ‘शराब माफियाओं के पक्ष में नीति बनाने’ का आरोप लगाता रहा है। हाईकोर्ट की यह सख्ती इन आरोपों को एक नया आधार दे सकती है।
जनता के पक्ष में खड़ा हुआ न्यायालय
कोर्ट के इस हस्तक्षेप को केवल एक कानूनी कार्रवाई न मानें। यह उपभोक्ता अधिकारों की सुरक्षा और राज्य की जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। वर्षों से शिकायतों को अनसुना करने वाले प्रशासन को अब साक्ष्यों सहित कोर्ट के सामने पेश होना होगा।
यह फैसला एक नज़ीर बन सकता है — न केवल मध्यप्रदेश के लिए बल्कि उन तमाम राज्यों के लिए जहां लाइसेंसी शराब बिक्री की आड़ में नियमों की खुली धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं।
निष्कर्ष: अदालत ने दी चेतावनी, अब सरकार की बारी
अब राज्य सरकार के पास बहुत अधिक समय नहीं है। उसे न केवल अदालत को संतोषजनक उत्तर देना होगा, बल्कि यह भी दिखाना होगा कि वह नियमों को लेकर गंभीर और पारदर्शी है।
वरना, यह मामला सिर्फ आर्थिक अनियमितता का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और विधिक शासन की विफलता के रूप में देखा जाएगा।